महाकुंभ 2025: आस्था का महापर्व या समाज के दोहरे मापदंडों का आईना?
महाकुंभ 2025 का आयोजन भव्यता और श्रद्धा के साथ शुरू हो चुका है। करोड़ों लोग गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम पर स्नान कर मोक्ष की कामना कर रहे हैं। हर तरफ आस्था का सैलाब उमड़ा हुआ है। लेकिन इस पवित्र पर्व से आने वाली कुछ तस्वीरों ने समाज में कई सवाल खड़े कर दिए हैं। धार्मिक नग्नता, जो नागा साधुओं की परंपरा का हिस्सा है, आज के आधुनिक समाज में आलोचना और समर्थन दोनों का विषय बन चुकी है। सवाल यह है कि जिस नग्नता को सिनेमा या बीच पर ‘ए सर्टिफिकेट’ की जरूरत होती है, वह कुंभ मेले में हर उम्र के लिए कैसे स्वीकार्य है? क्या यह परंपरा के नाम पर एक विशेषाधिकार है, या फिर आस्था के सामने हमारी नैतिकता का दोहरा मापदंड?
धर्म, परंपरा और समाज के बदलते मूल्य
महाकुंभ, जिसे दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक मेला कहा जाता है, आस्था और साधना का प्रतीक है। यहां आने वाले साधु-संत अपनी विभिन्न परंपराओं और साधनाओं के लिए जाने जाते हैं। इनमें से सबसे ज्यादा चर्चा नागा साधुओं की होती है, जो निर्वस्त्र होकर अपनी तपस्या और त्याग का प्रदर्शन करते हैं। उनकी नग्नता धर्म और तप का प्रतीक मानी जाती है। लेकिन क्या समाज आज भी इसे उसी नजरिए से देखता है जैसा सदियों पहले देखता था?
जहां एक ओर धार्मिक नग्नता को साधना का हिस्सा मानकर श्रद्धा की दृष्टि से देखा जाता है, वहीं दूसरी ओर फिल्मों और सार्वजनिक स्थानों पर नग्नता को अश्लीलता का पर्याय माना जाता है। सवाल यह है कि अगर नग्नता केवल वयस्कों के लिए होती है, तो महाकुंभ जैसे आयोजन में इसे हर उम्र के लिए सामान्य क्यों माना जाता है?
सभ्यता और संस्कृति का इतिहास: नग्नता से वस्त्रों तक का सफर
अगर इतिहास के पन्नों को पलटें, तो हम पाएंगे कि मानव सभ्यता का प्रारंभिक दौर नग्नता से ही जुड़ा था। हमारे पूर्वज जंगलों में बिना वस्त्रों के रहते थे। यह उनकी प्राकृतिक अवस्था थी। लेकिन जैसे-जैसे समाज ने कृषि और स्थायी बस्तियों का विकास किया, वस्त्र केवल शरीर को ढकने का साधन नहीं रहे, बल्कि मर्यादा और प्रतिष्ठा के प्रतीक बन गए।
धर्म ने भी इस परिवर्तन को अपने अनुसार परिभाषित किया।
- जैन धर्म के दिगंबर मुनि नग्नता को त्याग और संसार से विमुखता का प्रतीक मानते हैं।
- हिन्दू धर्म में नागा साधु नग्न रहकर अपने सांसारिक मोह से मुक्ति का प्रदर्शन करते हैं।
परंतु क्या समाज में नग्नता का यह समान स्वीकार्य दृष्टिकोण महिलाओं और पुरुषों दोनों के लिए है?
नागा साधु बनाम नग्न साध्वियां: क्या है समाज का दृष्टिकोण?
महाकुंभ में जब नागा साधु नग्न होकर गंगा में स्नान करते हैं, तो लोग उन्हें श्रद्धा और आस्था की दृष्टि से देखते हैं। लेकिन जब कोई महिला उसी रूप में साधना करती है, तो उसे आलोचना और अश्लीलता का सामना करना पड़ता है। यह सामाजिक सोच का वह पक्ष है, जो धर्म और नग्नता के प्रति दोहरे मापदंड को उजागर करता है।
सोशल मीडिया पर महाकुंभ की कुछ तस्वीरों में महिलाओं को नग्न या अर्धनग्न अवस्था में दिखाए जाने के बाद यह बहस और तेज हो गई है। क्या धर्म और साधना के नाम पर यह स्वीकृति केवल पुरुषों तक सीमित रहनी चाहिए?
फिल्मों और फैशन में नग्नता: आधुनिकता या अश्लीलता?
हमारे समाज में फिल्मों और फैशन शो में नग्नता को अलग नजरिए से देखा जाता है।
- जब कोई अभिनेत्री कम कपड़े पहनती है, तो उस फिल्म को A सर्टिफिकेट मिलता है।
- समुद्री बीच पर कपल्स के लिए भी ‘18+’ वाली पाबंदियां देखी जाती हैं।
इसके बावजूद, महाकुंभ जैसे धार्मिक आयोजनों में नग्नता हर उम्र के लिए सामान्य मानी जाती है। सवाल यह है कि क्या धार्मिक नग्नता को भी एक आयु सीमा में बांधा जाना चाहिए? या फिर धार्मिक परंपराओं को आधुनिक नैतिकता से परे मान लिया जाना चाहिए?
नग्नता और समाज का दोगला चरित्र: महिलाओं के लिए अलग मानक क्यों?
महाकुंभ 2025 से आ रही तस्वीरों और वीडियो पर समाज में हो रही बहस ने एक और गंभीर सवाल को जन्म दिया है—क्या महिलाओं और पुरुषों के लिए नग्नता के मानक समान हैं?
आज अगर कोई महिला छोटे कपड़े पहनती है, बिकिनी में समुद्र तट पर जाती है, या अपने शरीर के कुछ हिस्सों को दिखाती है, तो उसे समाज की कठोर आलोचना का सामना करना पड़ता है। ऐसे कपड़ों को अश्लील और चरित्रहीनता का प्रतीक मान लिया जाता है। वहीं, अगर यही नग्नता धार्मिक परंपराओं के नाम पर नागा साधुओं द्वारा प्रदर्शित की जाती है, तो इसे त्याग और साधना का प्रतीक माना जाता है।
लोग पूछ रहे हैं,
- अगर कोई महिला बिकिनी पहनती है, तो वह अश्लीलता क्यों मानी जाती है?
- क्या धर्म के नाम पर पुरुषों को नग्नता का विशेषाधिकार दिया गया है?
सोशल मीडिया पर कई उपयोगकर्ता यह सवाल उठा रहे हैं कि अगर धर्म के नाम पर नग्नता स्वीकार्य है, तो क्या किसी महिला को भी धार्मिक साध्वी के रूप में अपने कपड़े उतारने की स्वतंत्रता मिलनी चाहिए? या फिर समाज केवल पुरुषों के लिए ही इस तरह की परंपराओं को सही मानता है?
अगर नग्नता अश्लीलता है, तो वह सब पर लागू होनी चाहिए
महाकुंभ जैसे धार्मिक आयोजनों में नागा साधुओं की नग्नता को समाज साधना और त्याग का प्रतीक मानता है। वहीं दूसरी तरफ, जब कोई महिला छोटे कपड़े पहनती है या बिकिनी में नजर आती है, तो उसे अश्लीलता और संस्कारहीनता का नाम दिया जाता है। सवाल उठता है—क्या नग्नता का अर्थ केवल संदर्भ पर निर्भर करता है?
अगर नग्नता को अश्लीलता और अनैतिकता का प्रतीक माना जाता है, तो यह नियम सभी पर समान रूप से लागू होना चाहिए।
- समुद्र तट पर बिकिनी पहनने वाली महिलाओं को आलोचना का सामना करना पड़ता है, जबकि महाकुंभ में नग्नता को सम्मान मिलता है।
- अगर फिल्मों में छोटे कपड़े पहनना धर्म का अपमान है, तो धार्मिक आयोजनों में नग्नता को क्यों विशेष दर्जा दिया जाता है?
समाज में किसी भी नियम या नैतिकता का पालन तभी प्रभावी हो सकता है जब वह सभी के लिए समान हो।
- क्या नग्नता केवल पुरुष साधुओं के लिए ही पवित्र और महिलाओं के लिए अपमानजनक है?
- अगर बिकिनी पहनने वाली महिलाओं को अश्लील कहा जाता है, तो महाकुंभ में नग्न नागा साधुओं को भी उसी तराजू से क्यों नहीं तौला जाता?
धर्म और नग्नता: महिलाओं की भागीदारी का विवाद
महाकुंभ में महिलाओं के लिए ऐसे कोई विशेष अधिकार नहीं हैं। नग्न साध्वी बनना न केवल अस्वीकार्य है, बल्कि ऐसा करने वाली महिलाओं को समाज की कठोर आलोचना और बहिष्कार का सामना करना पड़ता है। जबकि पुरुष साधुओं को समाज में सम्मान और विशेष दर्जा मिलता है, महिलाओं के लिए वही नग्नता पितृसत्तात्मक सोच के कारण शर्म और बदनामी का कारण बन जाती है।
यह समाज के उस दोहरे चरित्र को उजागर करता है, जहां धर्म और संस्कृति का नाम लेकर पुरुषों को विशेष अधिकार दिए जाते हैं, लेकिन महिलाओं को उनके कपड़ों से चरित्र और सम्मान का मूल्यांकन किया जाता है।
“पठान” मूवी का विवाद: जब बिकिनी पहनना धर्म का अपमान बना
2023 में रिलीज़ हुई फिल्म “पठान” इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। फिल्म के गाने “बेशर्म रंग” में दीपिका पादुकोण को भगवा रंग की बिकिनी में दिखाया गया, जिस पर पूरे देश में विवाद खड़ा हो गया।
- धार्मिक संगठनों ने इसे हिंदू धर्म का अपमान बताया।
- दीपिका के कपड़ों और डांस मूव्स को अश्लीलता और धार्मिक भावनाएं आहत करने वाला करार दिया गया।
- सिनेमाघरों में तोड़फोड़ हुई, और फिल्म के बहिष्कार की मांग उठी।
यह विरोधाभास साफ करता है कि
- जब बिकिनी फिल्म में होती है, तो वह अश्लीलता और धार्मिक अपमान बन जाती है,
- लेकिन जब नग्नता महाकुंभ में होती है, तो वह आध्यात्मिक साधना और त्याग का प्रतीक मानी जाती है।
आदिवासी जनजातियां और नग्नता: एक सांस्कृतिक दृष्टिकोण
भारत और विश्व में कई आदिवासी समुदाय आज भी नग्नता को अपनी जीवनशैली का हिस्सा मानते हैं।
- उत्तर-पूर्वी भारत की कुछ जनजातियां पारंपरिक रूप से नग्न अवस्था में रहती हैं।
- उनके लिए नग्नता अश्लीलता नहीं, बल्कि प्रकृति के साथ सामंजस्य का प्रतीक है।
फिर भी, जब आधुनिक समाज उनके जीवन पर टिप्पणी करता है, तो अक्सर यह तिरस्कार और उपहास से भरा होता है। यही नग्नता जब किसी पश्चिमी संस्कृति में देखी जाती है, तो इसे कला और स्वतंत्रता के नाम पर स्वीकार कर लिया जाता है। यह भी पढ़े : पटना: ऑक्सीजन सिलेंडर विस्फोट से वैन चालक के उड़े चीथड़े, एक घायल; आसपास के घरों और वाहनों को भारी नुकसान
आधुनिक आलोचना: धर्म और नग्नता का व्यावसायीकरण
आज के समय में कई बाबाओं और साधुओं ने धर्म और नग्नता को लोकप्रियता और व्यवसाय का साधन बना लिया है। सोशल मीडिया पर उनकी तस्वीरें वायरल होती हैं, और उनके अनुयायियों की संख्या बढ़ती जाती है। धर्म के नाम पर इस व्यावसायिक नग्नता पर सवाल उठना स्वाभाविक है। यह भी पढ़े : धर्म, इतिहास, और आज की राजनीति: देश में सांप्रदायिकता और असल मुद्दों से ध्यान भटकाने की रणनीति पर विस्तृत लेख
क्या महाकुंभ में उम्र सीमा लागू हो सकती है?
महाकुंभ जैसे बड़े धार्मिक आयोजन में उम्र सीमा लागू करना न केवल असंभव है, बल्कि यह धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन भी माना जाएगा। फिर भी, समाज को यह सोचने की जरूरत है कि धार्मिक नग्नता को एक विशेषाधिकार के रूप में देखना कितना उचित है।
महाकुंभ में नग्नता और धर्म का संबंध एक जटिल विषय है, जिसमें परंपरा, आस्था और आधुनिकता का टकराव है। नग्नता का अर्थ हर संदर्भ में अलग होता है – कभी यह त्याग का प्रतीक है, तो कभी अश्लीलता का आरोप झेलता है।