अमेरिकी राजनीति के इस घने जंगल में एक सैर पर निकलते हैं।—इसमे हम ओबामा के सपनों, ट्रंप के तूफान, बाइडेन के गठजोड़ और ट्रंप 2.0 की रणनीति को देखते हुए कुछ बड़े सवालों के जवाब तलाशेंगे। मसलन, रूस और चीन को लेकर अमेरिका का रुख … ट्रंप ने अपने शपथ ग्रहण में हमारे अपने पीएम मोदी को नज़रअंदाज़ कर चीन के शी जिनपिंग को क्यों बुलाया? साथ ही, ये भी देखेंगे कि अमेरिका पहले युद्ध में सपोर्ट करता है और फिर पीछे क्यों छोड़ देता है। और हाँ, यूरोप को लेकर उसकी चाल क्या है? —
सबसे पहले बात ओबामा की। 2009 में जब बराक ओबामा सत्ता में आए, तो उन्होंने एक “सभी के साथ दोस्ती” वाला रास्ता चुना। उनका मानना था कि दुनिया के देशों के हित आपस में जुड़े हैं। चीन, रूस, भारत—सबके साथ पार्टनरशिप की बात की। रूस के साथ न्यू स्टार्ट ट्रीटी की, चीन के साथ ट्रेड बढ़ाया, और यूक्रेन जैसे देशों को सिर्फ नैतिक समर्थन दिया, हथियार नहीं। लेकिन 2014 में जब रूस ने क्रीमिया पर कब्जा किया, तो ओबामा की नरम नीति की आलोचना हुई। फिर भी, वो युद्ध से बचे और यूरोप के साथ नाटो को मजबूत रखा।
फिर आए डोनाल्ड ट्रंप—पहली बार 2017 में। “अमेरिका फर्स्ट” का नारा लेकर वो बिल्कुल अलग रंग में थे। ट्रंप ने ओबामा की कई नीतियों को पलटा—पेरिस क्लाइमेट डील से बाहर निकले, ईरान न्यूक्लियर डील को तोड़ा, और चीन पर ट्रेड वॉर शुरू किया। रूस के साथ उनके रिश्ते दोस्ताना लगे, लेकिन कांग्रेस ने पुतिन पर सख्ती बरकरार रखी। यूक्रेन को उन्होंने हथियार दिए, जो ओबामा ने नहीं किया था। यूरोप के साथ वो नाटो को “बोझ” कहते रहे, पर फिर भी उससे बाहर नहीं निकले। ट्रंप का स्टाइल था—बड़े-बड़े वादे, लेकिन कई बार एक्शन आधा-अधूरा।
2021 में जो बाइडेन आए। उन्होंने ट्रंप की कई नीतियों को आगे बढ़ाया—चीन पर टैरिफ बढ़ाए, रूस को प्रतिद्वंद्वी माना, और यूक्रेन को भारी सैन्य मदद दी। लेकिन बाइडेन का फोकस गठबंधनों पर था। नाटो को मजबूत किया, यूरोप को साथ लिया, और क्वाड (अमेरिका, भारत, जापान, ऑस्ट्रेलिया) को फिर से जिंदा किया। अफगानिस्तान से निकलना उनका बड़ा फैसला था, पर वो पूरी तरह बिगड़ गया। —13 सैनिक मरे और उनकी लोकप्रियता गिर गई। फिर भी, यूक्रेन-रूस युद्ध में वो यूरोप के साथ डटकर खड़े रहे।
अब ट्रंप 2.0—2025 में दोबारा सत्ता में। ट्रंप का कहना है कि वो यूक्रेन-रूस युद्ध को “24 घंटे में” खत्म कर देंगे। लेकिन उनका तरीका साफ है—वो सीधे रूस और चीन से डील करना चाहते हैं, न कि यूरोप या दूसरे सहयोगियों के भरोसे रहना।
ट्रंप का प्लान: रूस और चीन को अलग करना
ट्रंप का एक बड़ा विजन ये भी है कि वो रूस और चीन को एक-दूसरे से अलग करना चाहते हैं। ऐसा वो क्यों चाहते हैं? क्योंकि अगर ये दोनों महाशक्तियाँ मिलकर काम करें, तो अमेरिका के लिए चुनौती दोगुनी हो जाएगी। ट्रंप की सोच निक्सन की उस पुरानी रणनीति से मिलती है, जब 1970 के दशक में अमेरिका ने सोवियत संघ और चीन के बीच दरार डाली थी। अब ट्रंप रूस को अपने पाले में लाकर चीन को अकेला करना चाहते हैं। लेकिन सवाल ये है—क्या पुतिन इसके लिए तैयार होंगे? और क्या शी जिनपिंग इसे चुपचाप देखते रहेंगे?
इसके लिए ट्रंप ने शपथ ग्रहण में शी को बुलाया, न कि मोदी को। ये एक सोची-समझी चाल थी। वो चीन से सीधे डील करना चाहते हैं—शायद ट्रेड, फेंटेनाइल, या ताइवान जैसे मुद्दों पर। भारत को वो पहले से ही अपने साथ मानते हैं, तो उन्हें लगा कि मोदी को बुलाने की जरूरत नहीं। लेकिन ये कदम भारत के लिए भी सोचने वाला है—क्या अमेरिका अब हमें उतना अहमियत देगा, जितना बाइडेन के समय में देता था?
ट्रंप ने मोदी को क्यों नहीं बुलाया, शी जिनपिंग को क्यों चुना?
20 जनवरी 2025 को ट्रंप का शपथ ग्रहण हुआ। सबकी नजर थी कि वो किन्हें बुलाते हैं। भारत के पीएम नरेंद्र मोदी को न्योता नहीं मिला, लेकिन चीन के शी जिनपिंग वहाँ थे। ये सवाल उठना लाजमी है कि अगर अमेरिका चीन को अलग रखना चाहता है, तो ये क्या माजरा है?
दरअसल, ट्रंप का मंत्र है “डील मेकिंग”। वो मानते हैं कि चीन और रूस जैसे बड़े प्लेयर्स से सीधे बात करके वो अपने शर्तों पर चीजें सेट कर सकते हैं। शी को बुलाना एक सिग्नल था—ट्रंप चीन पर दबाव बनाना चाहते हैं, लेकिन ट्रेड और न्यूक्लियर हथियारों जैसे मुद्दों पर डील भी करना चाहते हैं। मोदी को न बुलाने की वजह शायद ये रही कि भारत पहले से ही अमेरिका का करीबी है—क्वाड में है, रूस से तेल लेने के बावजूद पश्चिम के साथ बैलेंस बनाए हुए है। ट्रंप को लगा कि भारत को “विशेष न्योता” देने की जरूरत नहीं, जबकि चीन को लाइन में लाने के लिए ये मौका जरूरी था।
पहले सपोर्ट, फिर पीछे हटना—अमेरिका की ये चाल क्या है?
अमेरिका की राजनीति में ये पैटर्न पुराना है। कोरिया, वियतनाम, अफगानिस्तान—शुरुआत में भारी सपोर्ट, फिर हालात बिगड़ते ही पीछे हटना। यूक्रेन में भी यही दिख रहा है। ओबामा ने नैतिक समर्थन दिया, ट्रंप ने हथियार, और बाइडेन ने अरबों डॉलर की मदद। लेकिन अब ट्रंप 2.0 में वो कह रहे हैं कि यूक्रेन को नाटो में नहीं लेना चाहिए और शांति डील करानी चाहिए—भले ही इसमें यूक्रेन को कुछ जमीन छोड़नी पड़े।
ये रणनीति अमेरिका के अपने हितों से चलती है। जब तक कोई युद्ध या संकट अमेरिका की सुरक्षा या अर्थव्यवस्था को सीधे फायदा देता है, वो साथ देता है। लेकिन जैसे ही खर्च बढ़ता है या जनता थकने लगती है (जैसे अफगानिस्तान में), वो पीछे हट जाता है। ट्रंप इस मामले में ज्यादा साफगोई से कहते हैं—वो “अमेरिका फर्स्ट” के नाम पर यूरोप या यूक्रेन के भरोसे नहीं रहना चाहते।
यूरोप को लेकर अमेरिका की क्या है सोच?
यूरोप के साथ अमेरिका का रिश्ता हमेशा प्यार-नफरत वाला रहा है। ओबामा और बाइडेन ने नाटो को मजबूत किया, यूरोप को रूस के खिलाफ एकजुट रखा। लेकिन ट्रंप का नजरिया अलग है। वो नाटो को “पुराना” मानते हैं और कहते हैं कि यूरोप को अपनी रक्षा खुद करनी चाहिए। ट्रंप 2.0 में वो यूरोप से कह सकते हैं कि “हम यूक्रेन में पैसा नहीं डालेंगे, तुम लोग संभालो।” इससे यूरोप चिंतित है—अगर अमेरिका पीछे हटा,
वो कहते हैं कि यूरोप को अब यूक्रेन की मदद के लिए आगे आना चाहिए, क्योंकि “वो तुम्हारे पड़ोसी हैं।” साथ ही, यूक्रेन को नाटो में शामिल करने की उम्मीद छोड़ने की चेतावनी भी दी। यूरोप के लिए ये एक बड़ा सवाल है—क्या वो अकेले रूस का मुकाबला कर पाएगा, या ट्रंप की ये बात सिर्फ दबाव बनाने की चाल है?
यूरोप का डर और नया रोल
यूरोप के लिए ट्रंप 2.0 एक झटके की तरह है। पहली बार ट्रंप ने नाटो को “बेकार” कहा था, और अब वो फिर वही राग अलाप रहे हैं। वो चाहते हैं कि यूरोप अपनी रक्षा खुद करे—खासकर यूक्रेन के मामले में। अगर अमेरिका पीछे हटता है, तो जर्मनी, फ्रांस जैसे देशों को अपनी सैन्य ताकत बढ़ानी पड़ेगी। लेकिन क्या वो इसके लिए तैयार हैं? यूरोप के कई देश पहले से ही रूस से डरे हुए हैं, और अब ट्रंप की बातों से उनकी नींद उड़ गई है। कुछ देश जैसे पोलैंड और लिथुआनिया तो पहले से ही अपनी सेनाएँ मजबूत कर रहे हैं, लेकिन पूरे यूरोप का एकजुट होना अभी दूर की बात लगती है।
अमेरिका का दोहरा चेहरा: सपोर्ट और पीछे हटना
अब बात उस सवाल की, कि —अमेरिका पहले सपोर्ट क्यों करता है और फिर पीछे क्यों हट जाता है? ये अमेरिकी राजनीति का एक पुराना खेल है। चाहे कोरिया हो, वियतनाम हो, या अफगानिस्तान—अमेरिका तब तक साथ देता है, जब तक उसे लगता है कि उसका फायदा हो रहा है। जैसे ही लागत बढ़ती है या घर में जनता नाराज होती है, वो बैकफुट पर चला जाता है। यूक्रेन में भी यही हो रहा है। बाइडेन ने हथियार और पैसा दिया, लेकिन अब ट्रंप कह रहे हैं कि ये अमेरिका का बोझ नहीं है। उनका मानना है कि यूरोप को ये जिम्मेदारी लेनी चाहिए। ये “अमेरिका फर्स्ट” की सोच है—अपना हित पहले, बाकी बाद में।
लेकिन ये दोहरा रवैया यूरोप और यूक्रेन जैसे देशों के लिए परेशानी खड़ी करता है। वो सोचते हैं—क्या अमेरिका पर भरोसा किया जा सकता है? और भारत जैसे देशों के लिए भी सबक है—हमें अपनी रक्षा और रणनीति खुद बनानी होगी, अमेरिका हमेशा साथ नहीं देगा।
तो क्या है अमेरिका की राजनीति?
अमेरिका की राजनीति का एक ही सूत्र है—अपना फायदा। ओबामा ने दोस्ती की, ट्रंप ने पहली बार ताकत दिखाई, बाइडेन ने गठबंधन बनाए, और अब ट्रंप 2.0 डील की टेबल पर लौट आए हैं। वो पहले सपोर्ट करते हैं, ताकत दिखाते हैं, लेकिन जैसे ही उनका मकसद पूरा होता है या नुकसान दिखता है, पीछे हट जाते हैं। यूरोप को वो अपने पैरों पर खड़ा करना चाहते हैं, ताकि अमेरिका का खर्च कम हो। रूस और चीन को अलग करके वो अपनी महाशक्ति की कुर्सी बचाना चाहते हैं। और भारत? हमें बस अपनी चाल चलते रहना है—क्योंकि ये खेल अब और पेचीदा होने वाला है। भारत को सतर्क रहना चाहिए, क्योंकि अगर अमेरिका और चीन में कोई डील होती है, तो उसका असर हमारे हितों पर भी पड़ सकता है—खासकर हिंद महासागर और बॉर्डर के मुद्दों पर।
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