भारत, जिसे कभी आर्यावर्त और जम्बूद्वीप के नाम से जाना जाता था, आज भी अपनी सांस्कृतिक विरासत और विविधता के लिए विश्व में पहचाना जाता है। लेकिन इस गौरवशाली इतिहास के पीछे दो ऐसी बीमारियाँ हैं, जो इस देश की आत्मा को खोखला कर रही हैं—जातिवाद और अशिक्षा। जहाँ एक ओर जातिवाद समाज को बाँट रहा है, वहीं दूसरी ओर शिक्षा की कमी और पाखंडवाद का बढ़ावा देश के युवाओं को बेरोजगारी और अंधविश्वास के गर्त में धकेल रहा है। यह लेख उस कड़वी सच्चाई को उजागर करता है, जो भारत को आज भी पीछे खींच रही है।Casteism, Illiteracy, Superstition, Social Justice, Education System
अमरीका का सबक: रंगभेद से मुक्ति की राह
अमरीका का इतिहास रंगभेद के काले अध्यायों से भरा है। वहाँ के गोरे समुदाय ने शुरुआत में काले लोगों के अधिकारों के लिए उठे आंदोलनों का कड़ा विरोध किया। गृहयुद्ध की आग में लाखों लोग झुलसे, मार्टिन लूथर किंग जैसे नायकों को अपनी जान गँवानी पड़ी, और अब्राहम लिंकन जैसे नेताओं को रंगभेद के खिलाफ खड़े होने की कीमत चुकानी पड़ी। लेकिन अमरीका ने हार नहीं मानी। समय के साथ गोरे समुदाय ने अपने पूर्वजों के पापों को स्वीकार किया। उन्होंने घुटनों पर बैठकर माफी माँगी, काले लोगों के आंदोलनों का समर्थन किया, और एक ऐसी व्यवस्था बनाई जो विविधता को गले लगाती है। आज अमरीका में डाइवर्सिटी इंडेक्स बनाया जाता है, और एक अश्वेत व्यक्ति, बराक ओबामा, व्हाइट हाउस में राष्ट्रपति बनकर इतिहास रच चुका है। यह बदलाव इसलिए संभव हुआ, क्योंकि अमरीका ने अपनी गलतियों को स्वीकार किया और सुधार की राह चुनी।
भारत का दर्द: जातिवाद और अशिक्षा का जाल
भारत में कहानी ठीक उल्टी है। यहाँ जातिवाद और अशिक्षा ने समाज को इस कदर जकड़ा है कि प्रगति के हर प्रयास को कुचल दिया जाता है। बुद्ध, कबीर, रैदास, नानक, बुल्लेशाह, बसवन्ना, नारायण गुरु, शाहू, ज्योतिबा फुले, डॉ. बी.आर. आंबेडकर, लोहिया, राहुल सांकृत्यायन, कर्पूरी ठाकुर, जगदेव प्रसाद, ललई सिंह यादव, और कांशीराम जैसे समाज सुधारकों ने जातिवाद के खिलाफ आवाज उठाई। इनमें से कई सवर्ण थे, जिन्होंने अपने ही समुदाय की व्यवस्था के खिलाफ बगावत की। लेकिन सवर्ण समाज ने उन्हें अपनाने के बजाय अपमानित किया, उपेक्षित किया, और उनके विचारों को जातिवाद बढ़ाने वाला करार दे दिया।
आज भी भारत में जातिवाद की जड़ें गहरी हैं। गाँवों से लेकर शहरों तक, शादी-ब्याह से लेकर नौकरियों तक, जाति हर जगह हावी है। सामाजिक न्याय के लिए लड़ने वाले लोग आज भी सवर्ण समाज के एक बड़े हिस्से की नजरों में खलनायक हैं। आंबेडकर को संविधान निर्माता के रूप में सम्मान तो दिया जाता है, लेकिन उनके जाति विरोधी विचारों को लागू करने की बात आते ही समाज खामोश हो जाता है।
शिक्षा का संकट: पाखंडवाद का बढ़ावा
जातिवाद के साथ-साथ भारत की दूसरी सबसे बड़ी बीमारी है अशिक्षा और पाखंडवाद को बढ़ावा। संविधान में वैज्ञानिक दृष्टिकोण और तार्किकता को बढ़ावा देने की बात कही गई है, लेकिन आज भी देश का एक बड़ा हिस्सा अंधविश्वास और पाखंड में डूबा है। शिक्षा का बजट लगातार घटाया जा रहा है, पब्लिक फंडेड शिक्षा व्यवस्था को कमजोर करने की कोशिशें हो रही हैं, और निजीकरण के नाम पर शिक्षा को केवल धनवानों की पहुँच तक सीमित किया जा रहा है।
भारत के करोड़ों नागरिक आज भी शिक्षा से वंचित हैं। स्कूलों में शिक्षक नहीं, किताबें नहीं, और बुनियादी सुविधाएँ नहीं। फिर भी, ऐसी बातें क्यों नहीं होतीं कि हम भारत की शिक्षा व्यवस्था को दुनिया का सबसे बेहतरीन बनाएँगे? क्यों नहीं हम एक ऐसी व्यवस्था बनाते, जो हर बच्चे को वैज्ञानिक सोच, तार्किकता, और समानता का पाठ पढ़ाए? इसके बजाय, पाखंडवाद को बढ़ावा दिया जा रहा है। धार्मिक कट्टरता और अंधविश्वास को बढ़ावा देने वाले तत्व समाज में जहर घोल रहे हैं।
युवा और बेरोजगारी: एक अनदेखा संकट
भारत का युवा आज बेरोजगारी के दलदल में फँसा है। लाखों पढ़े-लिखे युवा नौकरी के लिए भटक रहे हैं। शिक्षा व्यवस्था उन्हें नौकरी के लिए तैयार नहीं करती, और जो नौकरियाँ उपलब्ध हैं, उनमें जातिवाद और भाई-भतीजावाद हावी है। सवर्ण समाज का एक हिस्सा आज भी आरक्षण को “अन्याय” मानता है, जबकि यह भूल जाता है कि सदियों से जाति व्यवस्था ने ही अवसरों को कुछ वर्गों तक सीमित रखा।
युवाओं में निराशा बढ़ रही है। वे देख रहे हैं कि उनकी डिग्रियाँ बेकार हो रही हैं, और समाज में पाखंडवाद और जातिवाद का बोलबाला है। यह निराशा खतरनाक है, क्योंकि यह समाज को और अधिक विभाजित कर सकती है।
बीमारी का कारण: सुधार की अनिच्छा
जातिवाद और अशिक्षा का अंत इसलिए नहीं हो रहा, क्योंकि समाज का एक बड़ा हिस्सा सुधार के लिए तैयार नहीं है। सवर्ण समाज ने न केवल जातिवाद को बनाए रखा, बल्कि शिक्षा के अवसरों को भी सीमित रखा। जो लोग शिक्षा और सामाजिक न्याय के लिए लड़े—जैसे फुले, आंबेडकर, या कांशीराम—उन्हें “विभाजनकारी” कहा गया। वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा देने की बात करने वाले राहुल सांकृत्यायन जैसे विचारकों को हाशिए पर धकेल दिया गया।
पाखंडवाद को बढ़ावा देने वाले तत्व आज भी समाज में प्रभावशाली हैं। वे धार्मिक और सामाजिक रूढ़ियों को बनाए रखते हैं, क्योंकि यह उनके हित में है। शिक्षा बजट को घटाना, पब्लिक स्कूलों को कमजोर करना, और अंधविश्वास को बढ़ावा देना—यह सब एक सुनियोजित रणनीति का हिस्सा है, जो समाज को अज्ञानता और असमानता के गर्त में रखना चाहती है।
अमरीका से सबक, भारत के लिए सवाल
अमरीका ने अपने रंगभेद को खत्म करने के लिए अपने समाज को बदला। उसने शिक्षा, समानता, और विविधता को बढ़ावा दिया। लेकिन भारत में ऐसा क्यों नहीं हो रहा? क्यों आज भी गाँवों में दलितों को मंदिरों में घुसने से रोका जाता है? क्यों आज भी जातिगत हिंसा की खबरें सुर्खियाँ बनती हैं? क्यों शिक्षा बजट को घटाया जा रहा है? क्यों वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा देने के बजाय पाखंडवाद को बढ़ावा दिया जा रहा है?
सवाल यह है कि भारत का समाज अपनी गलतियों को कब स्वीकार करेगा? कब वह शिक्षा को हर नागरिक का अधिकार बनाएगा? कब वह बुद्ध, कबीर, आंबेडकर, और कांशीराम के सपनों को साकार करेगा?
अंत: एक उम्मीद की किरण
जातिवाद, अशिक्षा, और पाखंडवाद का अंत आसान नहीं है, लेकिन असंभव भी नहीं। भारत के युवा आज बदल रहे हैं। सोशल मीडिया, वैश्विक दृष्टिकोण, और शिक्षा ने नई पीढ़ी को जातिवाद और अंधविश्वास के खिलाफ सोचने के लिए मजबूर किया है। सामाजिक न्याय और शिक्षा के लिए लड़ने वाले संगठन और आंदोलन आज भी जीवित हैं।
लेकिन यह बदलाव तभी संभव है, जब समाज अपनी जिम्मेदारी स्वीकार करे। सवर्ण समाज को यह मानना होगा कि जातिवाद एक बीमारी है, और इसका इलाज वही कर सकते हैं जो इसे बनाए रखने में भागीदार रहे हैं। सरकार को शिक्षा बजट बढ़ाना होगा, पब्लिक स्कूलों को मजबूत करना होगा, और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा देना होगा। युवाओं को बेरोजगारी से निकालने के लिए अवसर पैदा करने होंगे।
यह समय है कि भारत अपनी बीमारियों को स्वीकार करे और उनका इलाज शुरू करे। क्योंकि जब तक बीमार सुधार की राह नहीं चुनता, तब तक कोई भी इलाज काम नहीं करता।