78 साल बाद अलवाड़ा में दलितों को मिला बाल कटवाने का अधिकार: कीर्ति चौहान ने तोड़ी जातिगत भेदभाव की परंपरा

गुजरात के बनासकांठा के अलवाड़ा गांव में 78 साल बाद दलितों को मिला बाल कटवाने का अधिकार: एक ऐतिहासिक जीत और जातिगत भेदभाव की कड़वी हकीकत

आपका भारत टाइम्स
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Dalits Haircut Rights :अलवाड़ा, के बनासकांठा जिले के अलवाड़ा गांव में एक ऐतिहासिक घटना ने सामाजिक समानता की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाया है। 7 अगस्त 2025 को 24 वर्षीय खेतिहर मजदूर कीर्ति चौहान ने गांव के नाई की दुकान पर बाल कटवाए, जो इस गांव में किसी दलित व्यक्ति के लिए पहली बार हुआ। यह घटना न केवल एक व्यक्ति की जीत है, बल्कि दशकों से चली आ रही जातिगत भेदभाव की प्रथा को तोड़ने का प्रतीक भी है। हालांकि, यह बदलाव भारत में आजादी के 78 साल बाद भी दलित समुदाय के सामने मौजूद सामाजिक असमानता की कड़वी सच्चाई को उजागर करता है।

पृष्ठभूमि: 78 साल की जातिगत भेदभाव की कहानी

अलवाड़ा गांव, जिसकी कुल आबादी लगभग 6,500 है, में करीब 250 दलित परिवार रहते हैं। आजादी से पहले और बाद में भी, इस गांव के दलितों को स्थानीय नाई की दुकानों पर बाल कटवाने से वंचित रखा गया था। इस भेदभाव के कारण दलित समुदाय के लोगों को अपने बाल कटवाने के लिए पड़ोसी गांवों में जाना पड़ता था, जहां उन्हें अक्सर अपनी जाति छिपानी पड़ती थी। यह प्रथा न केवल अपमानजनक थी, बल्कि यह संविधान के अनुच्छेद 15 और 17 के तहत अस्पृश्यता को समाप्त करने के प्रावधानों का भी उल्लंघन करती थी।

58 वर्षीय दलित किसान छोगाजी चौहान ने बताया, “मेरे पिता को आजादी से पहले और मेरे बच्चों को आजादी के आठ दशक बाद भी इस भेदभाव का सामना करना पड़ा। हमें बाल कटवाने के लिए मीलों पैदल चलना पड़ता था। यह सिर्फ एक सेवा का मसला नहीं, बल्कि हमारे आत्मसम्मान का सवाल था।”

7 अगस्त 2025 को कीर्ति चौहान ने गांव की एक नाई की दुकान में कदम रखा और बाल कटवाए। यह पल उनके लिए निजी तौर पर तो महत्वपूर्ण था ही, बल्कि पूरे दलित समुदाय के लिए एक प्रतीकात्मक जीत बन गया। इस बदलाव के पीछे दलित समुदाय, स्थानीय कार्यकर्ता चेतन दाभी और जिला प्रशासन की अथक कोशिशें थीं। कई महीनों तक चली संवेदीकरण और बातचीत की प्रक्रिया के बाद, गांव की सभी पांच नाई की दुकानों ने अनुसूचित जातियों के लिए अपने दरवाजे खोल दिए।

स्थानीय नाई पिंटू नाई (21), जिन्होंने कीर्ति को पहला हेयरकट दिया, ने कहा, “हम पहले समाज के दबाव में थे। लेकिन जब गांव के बुजुर्गों ने बदलाव को स्वीकार किया, तो हमें कोई आपत्ति नहीं थी। यह हमारे व्यवसाय के लिए भी अच्छा है।”

प्रशासन और कार्यकर्ताओं की भूमिका

इस बदलाव में जिला प्रशासन की भूमिका अहम रही। ममलतदार जनक मेहता ने बताया कि दलित समुदाय से मिली शिकायतों के बाद प्रशासन ने गांव के नेताओं और नाइयों के साथ कई दौर की बातचीत की। “हमने इस भेदभाव को खत्म करने के लिए सामंजस्यपूर्ण समाधान निकाला। मेहता ने कहा यह एक छोटा कदम हो सकता है, लेकिन सामाजिक समानता की दिशा में यह बहुत बड़ा बदलाव है,”

स्थानीय कार्यकर्ता चेतन दाभी ने बताया कि कई महीनों तक उच्च जाति के लोगों और नाइयों को संवैधानिक अधिकारों के बारे में जागरूक करने की कोशिश की गई। “कई लोग बदलाव के खिलाफ थे, लेकिन पुलिस और प्रशासन के हस्तक्षेप के बाद आखिरकार वे मान गए,” दाभी ने कहा।

गांव के सरपंच सुरेश चौधरी ने इस बदलाव को अपनी उपलब्धि माना। उन्होंने कहा, “मुझे इस बात का दुख था कि मेरे कार्यकाल में यह भेदभाव चल रहा था। अब मुझे गर्व है कि मेरे कार्यकाल में ही यह प्रथा खत्म हुई।”

जातिगत भेदभाव की गहरी जड़ें

हालांकि यह घटना एक जीत के रूप में देखी जा रही है, लेकिन यह भारत में जातिगत भेदभाव की गहरी जड़ों को भी उजागर करती है। दलित किसान ईश्वर चौहान ने बताया कि गांव में अभी भी सामुदायिक भोजों में अलग-अलग बैठने की प्रथा बनी हुई है। “हमें बाल कटवाने का अधिकार तो मिल गया, लेकिन सामाजिक समानता अभी भी दूर की कौड़ी है,” उन्होंने कहा।

नवसर्जन ट्रस्ट की 2010 की एक रिपोर्ट के अनुसार, गुजरात के 1,589 गांवों में से 73% गांवों में दलितों को नाई की सेवाओं से वंचित रखा गया था। यदि इस आंकड़े को पूरे गुजरात के 18,676 गांवों पर लागू करें, तो लगभग 13,633 गांवों में यह प्रथा प्रचलित थी। यह आंकड़ा न केवल शर्मनाक है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि सामाजिक सुधारों के बावजूद दलितों के खिलाफ भेदभाव बरकरार है।

ऊपरी जातियों का समर्थन

इस बदलाव को कुछ ऊपरी जाति के लोगों का भी समर्थन मिला। पटिदार समुदाय के प्रकाश पटेल ने कहा, “अगर मेरी किराने की दुकान पर सभी ग्राहक स्वागत योग्य हैं, तो नाई की दुकान पर क्यों नहीं? हमें खुशी है कि यह गलत प्रथा खत्म हुई।”

कानूनी और सामाजिक संदर्भ

भारत का संविधान अस्पृश्यता को गैरकानूनी घोषित करता है और अनुसूचित जाति और जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के तहत इस तरह के भेदभाव को दंडनीय अपराध माना जाता है। फिर भी, गुजरात सहित देश के कई हिस्सों में दलितों के खिलाफ भेदभाव की घटनाएं आम हैं। 2010 में हुए एक अध्ययन में पाया गया कि गुजरात में पिछले 15 वर्षों में दलितों के खिलाफ अत्याचार के मामले 70% बढ़े हैं, और दोषसिद्धि दर 5% से भी कम है।

विरोधी दावे और सच्चाई

हालांकि इस घटना को व्यापक रूप से सामाजिक जीत के रूप में देखा गया, कुछ सोशल मीडिया पोस्ट्स में दावा किया गया कि यह भेदभाव का मामला नहीं, बल्कि दो युवकों के बीच का निजी विवाद था। पुलिस और सरपंच ने इसे अफवाह बताया, लेकिन यह दावा भी इस घटना की जटिलता को दर्शाता है।

अलवाड़ा गांव की यह घटना समाज को यह सोचने के लिए मजबूर करता है कि आजादी के 78 साल बाद भी बुनियादी अधिकारों के लिए संघर्ष क्यों करना पड़ रहा है। सामाजिक कार्यकर्ताओं और प्रशासन को अब यह सुनिश्चित करना होगा कि इस तरह के बदलाव पूरे गुजरात और देश में फैलें।

 

कीर्ति चौहान ने अपनी भावनाओं को व्यक्त करते हुए कहा, “मैं पहला दलित हूं जिसने यहां बाल कटवाए। यह मेरे लिए गर्व का क्षण है, लेकिन यह सिर्फ शुरुआत है। हमें अभी लंबा रास्ता तय करना है।”

अलवाड़ा गांव की यह घटना  यह हमें यह भी याद दिलाती है कि जातिगत भेदभाव की जड़ें कितनी गहरी हैं। यह बदलाव दलित समुदाय की हिम्मत, कार्यकर्ताओं की मेहनत और प्रशासन के सहयोग का नतीजा है। लेकिन जब तक समाज में पूरी तरह समानता नहीं आती, तब तक यह संघर्ष जारी रहेगा।

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