allahabad high court hinglish judgments :
प्रदेश की निचली अदालतों (ट्रायल कोर्ट) में फैसलों को हिंदी और अंग्रेजी के मिश्रण में लिखने की प्रथा पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कड़ी आपत्ति जताई है। हाईकोर्ट ने स्पष्ट निर्देश जारी करते हुए कहा है कि ट्रायल कोर्ट अपने फैसले या तो पूरी तरह हिंदी में लिखें या पूरी तरह अंग्रेजी में। दोनों भाषाओं का मिश्रण (जिसे आम बोलचाल में ‘हिंग्लिश’ कहा जाता है) पूरी तरह अस्वीकार्य और गलत है। यह फैसला हिंदी भाषी राज्य यूपी में न्याय की पहुंच को आसान बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है, क्योंकि मिश्रित भाषा से आम वादी-प्रतिवादी को फैसले के तर्क समझने में कठिनाई होती है।
मामले की पृष्ठभूमि: दहेज हत्या का केस जो बना उदाहरण
दरअसल यह निर्देश एक दहेज हत्या के मामले की अपील सुनवाई के दौरान दिया गया। मामला आगरा के एक सत्र न्यायालय (सेशंस कोर्ट session court) से जुड़ा था, जहां एक पत्नी की संदिग्ध मौत के बाद उसके पति पर दहेज हत्या का आरोप लगा था। सूचनाकर्ता वैद प्रकाश तिवारी ने आरोपी पति की बरी होने के फैसले को चुनौती देते हुए हाईकोर्ट में अपील दायर की थी। लेकिन हाईकोर्ट ने न केवल अपील खारिज कर दी, बल्कि निचली अदालत के 54 पन्नों के फैसले की भाषा शैली पर गंभीर सवाल उठाए। हाईकोर्ट की खंडपीठ ने पाया कि यह फैसला ‘क्लासिक उदाहरण’ था मिश्रित भाषा का। इसमें कुल 199 पैराग्राफ थे, जिनमें से 63 पूरी तरह अंग्रेजी में, 125 पूरी तरह हिंदी में, और 11 पैराग्राफ दोनों भाषाओं के मिश्रण वाले थे। कई जगह तो एक ही वाक्य आधा हिंदी और आधा अंग्रेजी में लिखा मिला। कोर्ट ने इसे ‘उत्कृष्ट उदाहरण’ बताते हुए टिप्पणी की कि ऐसी शैली से न्याय का उद्देश्य ही विफल हो जाता है। खंडपीठ ने कहा, “उत्तर प्रदेश एक हिंदी भाषी राज्य है, जहां बहुसंख्यक आबादी हिंदी ही बोलती-समझती है। फैसले हिंदी में लिखने का मूल उद्देश्य यही है कि साधारण वादी या प्रतिवादी फैसले को आसानी से समझ सकें और कोर्ट द्वारा दावे को स्वीकार या अस्वीकार करने के कारणों को जान सकें। लेकिन जब फैसला आंशिक हिंदी और आंशिक अंग्रेजी में होता है, तो हिंदी जानने वाला आम व्यक्ति अंग्रेजी वाले हिस्से के तर्कों को नहीं समझ पाता। इससे न्याय प्रक्रिया की पारदर्शिता प्रभावित होती है।”
द्विभाषी प्रथा का दुरुपयोग: कोर्ट ने दी सख्त चेतावनी
हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि यूपी में 11 अगस्त 1951 (जी.एल. नंबर 8/एक्स-ई-5) और 2 दिसंबर 1972 के सरकारी आदेशों के तहत ट्रायल कोर्टों में द्विभाषी प्रथा (हिंदी या अंग्रेजी) लागू है। प्रेसिडिंग ऑफिसर अपनी सुविधा के अनुसार एक भाषा चुन सकते हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि दोनों को मिलाकर लिखा जाए। कोर्ट ने जोर देकर कहा, “वर्तमान प्रणाली का दुरुपयोग आंशिक अंग्रेजी और आंशिक हिंदी में फैसला लिखने के लिए नहीं किया जा सकता। यह प्रथा न्याय के मूल सिद्धांतों के विरुद्ध है।” खंडपीठ ने अपने 29 अक्टूबर 2025 के फैसले में यह निर्देश भी दिया कि इस निर्णय की प्रति मुख्य न्यायाधीश के समक्ष रखी जाए ताकि उचित कार्रवाई हो सके। साथ ही, इसे पूरे राज्य के सभी न्यायिक अधिकारियों (ज्यूडिशियल ऑफिसर्स) को प्रसारित किया जाए। कोर्ट ने ‘आशा और विश्वास’ जताया कि भविष्य में सभी फैसले एक ही भाषा में लिखे जाएंगे।
व्यापक प्रभाव: न्यायपालिका में भाषाई सुधार की दिशा यह फैसला यूपी की 20,000 से अधिक निचली अदालतों के लिए बाध्यकारी होगा, जहां प्रतिदिन हजारों फैसले सुनाए जाते हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि इससे न केवल वादियों को राहत मिलेगी, बल्कि कोर्ट की कार्यक्षमता भी बढ़ेगी। वकीलों का कहना है कि मिश्रित भाषा से अपीलों में अनुवाद की समस्या बढ़ जाती है, जो समय और संसाधनों की बर्बादी का कारण बनती है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने भी भाषाई असंगतियों पर चिंता जताई थी, जहां हिंदी-अंग्रेजी के टकराव में अंग्रेजी संस्करण को प्राथमिकता दी जाती है। लेकिन इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह कदम स्थानीय स्तर पर अधिक व्यावहारिक है, जो हिंदी को मजबूत करने की दिशा में है।
अपील पर फैसला: अभियोजन साबित करने में नाकाम
मामले के मूल पर आते हुए, हाईकोर्ट ने पाया कि अभियोजन दहेज की मांग से जुड़ी क्रूरता साबित करने में असफल रहा। पत्नी की मौत शादी के सात साल बाद अप्राकृतिक थी, लेकिन कोई प्रत्यक्ष सबूत नहीं मिला। आरोपी पति ने पत्नी को अस्पताल पहुंचाया, बिल भरा और अंतिम संस्कार किया, जो उसके निर्दोष होने का संकेत देता है। इसलिए, निचली अदालत का बरी का फैसला सही ठहराया गया।
(स्रोत: इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश)
लेखक: ABTNews24 डेस्क
