बाबरी मस्जिद-राम मंदिर विवाद: जस्टिस नरीमन का नजरिया
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस आरएफ नरीमन ने अयोध्या मामले पर 2019 में दिए गए सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले की तीखी आलोचना की। उन्होंने इसे “न्याय का मजाक” करार दिया और कहा कि फैसले में “सेकुलरिज्म” के सिद्धांतों का पालन नहीं हुआ। उनका यह बयान “सेकुलरिज्म और भारतीय संविधान” विषय पर आयोजित एक व्याख्यान के दौरान आया।
क्या कहा जस्टिस नरीमन ने?
जस्टिस नरीमन ने साफ तौर पर कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने खुद माना था कि बाबरी मस्जिद के नीचे कोई राम मंदिर नहीं था। बावजूद इसके विवादित भूमि राम मंदिर निर्माण के लिए हिंदू पक्ष को सौंप दी गई। उन्होंने इसे सेकुलरिज्म के खिलाफ बताया।
उन्होंने बताया कि:
- मस्जिद का निर्माण 1528 में हुआ था और यह 1857 तक मुस्लिमों के लिए प्रार्थना स्थल के रूप में इस्तेमाल होती रही।
- 1857 में विवाद शुरू हुआ, जिसके बाद ब्रिटिश सरकार ने मस्जिद के अंदर और बाहर एक दीवार बना दी।
- अंदर मुस्लिम नमाज पढ़ते थे और बाहर हिंदू पूजा करते थे।
- 1949 में मस्जिद में रातोंरात मूर्तियां रख दी गईं, जिससे मुस्लिमों की नमाज रुक गई।
2019 का सुप्रीम कोर्ट का फैसला
2019 में, तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अगुवाई में सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की पीठ ने विवादित 2.77 एकड़ भूमि राम मंदिर निर्माण के लिए हिंदू पक्ष को सौंप दी। सुन्नी वक्फ बोर्ड को मस्जिद निर्माण के लिए अयोध्या में 5 एकड़ वैकल्पिक भूमि देने का आदेश दिया गया।
कोर्ट ने अपने फैसले में माना था कि:
- 1992 में बाबरी मस्जिद का विध्वंस कानून का गंभीर उल्लंघन था।
- 1857 से 1949 तक मुस्लिम पक्ष वहां नमाज पढ़ते रहे।
- हिंदू पक्ष ने कई बार कानून तोड़ा।
इसके बावजूद, कोर्ट ने विवादित स्थल हिंदू पक्ष को सौंप दिया। जस्टिस नरीमन ने इसे न्याय का मजाक बताते हुए कहा कि “हर बार कानून का उल्लंघन हिंदू पक्ष ने किया, लेकिन फिर भी फैसला उनके पक्ष में गया।”
लिब्रहान आयोग और राष्ट्रपति संदर्भ पर सवाल
जस्टिस नरीमन ने लिब्रहान आयोग की कार्यप्रणाली पर भी सवाल उठाए।
- यह आयोग 17 साल तक निष्क्रिय रहा और फिर 2009 में रिपोर्ट पेश की।
- 1993 में सरकार ने अयोध्या अधिग्रहण क्षेत्र अधिनियम लाया और सुप्रीम कोर्ट से पूछा कि मस्जिद के नीचे कोई मंदिर था या नहीं।
- उन्होंने इसे “भ्रामक और शरारतपूर्ण” करार दिया।
इस्माइल फारूकी केस का जिक्र
1994 के इस्माइल फारूकी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 67 एकड़ भूमि के अधिग्रहण को वैध ठहराया था। लेकिन जस्टिस एएम अहमदी ने इसे सेकुलरिज्म के खिलाफ बताया था।
एएसआई रिपोर्ट और ऐतिहासिक साक्ष्य
2003 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) ने अपनी रिपोर्ट में दावा किया कि विवादित स्थल पर विभिन्न धर्मों से जुड़े अवशेष पाए गए।
- इनमें शैव, बौद्ध और जैन संस्कृतियों के चिन्ह भी शामिल थे।
- लेकिन यह साबित नहीं हुआ कि वहां पहले राम मंदिर था।
जस्टिस नरीमन ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने एएसआई की रिपोर्ट के आधार पर माना कि विवादित स्थल पर मुस्लिमों का “एकमात्र अधिकार” नहीं था।
सेकुलरिज्म की अनदेखी पर नाराजगी
जस्टिस नरीमन ने कहा कि भारत जैसे लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष देश में यह फैसला सेकुलरिज्म के सिद्धांतों का पालन करने में नाकाम रहा। उन्होंने कहा:
- “हर बार कानून तोड़ा गया, लेकिन इसका परिणाम सिर्फ मुस्लिमों को वैकल्पिक भूमि देने तक सीमित रहा।”
- बाबरी मस्जिद विध्वंस के आरोपी बरी हो गए और इस फैसले को देने वाले जज को बाद में उप-लोकायुक्त बना दिया गया।
अयोध्या विवाद का निष्कर्ष
जस्टिस नरीमन के मुताबिक, यह विवाद भारत के न्याय और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों के लिए चुनौतीपूर्ण था। उन्होंने कहा कि फैसले में सेकुलरिज्म को प्राथमिकता देनी चाहिए थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
आगे का सवाल
जस्टिस नरीमन ने भारतीय न्याय प्रणाली और लोकतांत्रिक मूल्यों पर सवाल उठाते हुए कहा कि क्या हम सही मायनों में न्याय कर पाए? उन्होंने इसे इतिहास के लिए एक “कड़वा सबक” बताया।
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