जजों की नियुक्ति में पारदर्शिता की पहल
सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने जजों की नियुक्ति प्रक्रिया में एक बड़ा बदलाव करते हुए एक नई शुरुआत की है। यह बदलाव परंपरागत प्रक्रियाओं से हटकर न्यायिक नियुक्तियों में पारदर्शिता और विश्वसनीयता को बढ़ाने की दिशा में एक अहम कदम है। कॉलेजियम का मानना है कि केवल फाइलों में दर्ज सूचनाओं के आधार पर उम्मीदवारों का चयन करना पर्याप्त नहीं है। इसके बजाय, व्यक्तिगत बातचीत के माध्यम से उनकी योग्यता और व्यक्तित्व को समझना ज्यादा जरूरी है।
कॉलेजियम के इस फैसले ने न्यायिक प्रणाली में सुधार की जरूरत को रेखांकित किया है। यह कदम उस समय उठाया गया जब इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज जस्टिस शेखर कुमार यादव के विवादास्पद बयानों को लेकर न्यायपालिका में गंभीर सवाल उठे।
जस्टिस शेखर कुमार यादव के विवादास्पद बयान न्यायपालिका में उठे सवाल और विवाद की शुरुआत
न्यायपालिका की निष्पक्षता और संविधान के प्रति उसकी जिम्मेदारी पर उस समय गंभीर सवाल उठने लगे जब इलाहाबाद हाई कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस शेखर कुमार यादव ने विश्व हिंदू परिषद (VHP) के एक कार्यक्रम में विवादास्पद बयान दिया। उन्होंने अपने भाषण में कहा कि “यह देश बहुसंख्यक के हिसाब से ही चलेगा जैसे परिवार में जिसका बहुमत होता है, वही निर्णय लेता है, वैसे ही देश को भी बहुसंख्यक विचारधारा के अनुसार चलना चाहिए।”यह भी पढ़े : कठमुल्ला देश के दुश्मन और ये हिंदुस्तान बहुसंख्यकों के हिसाब से चलेगा इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज जस्टिस शेखर कुमार यादव का विवादित बयान
इसके अलावा, उन्होंने मुस्लिम समुदाय को लेकर ” ये कठ मुल्ला देश के लिए खतरा है ।” जैसे अपमानजनक शब्दों का प्रयोग किया, इस बयान ने संवैधानिक मूल्यों और न्यायपालिका की निष्पक्षता पर गहरी चोट की। उनके इस विचार को संविधान के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप के खिलाफ माना गया।
“भारत को केवल हिंदू ही ‘विश्व गुरु’ बना सकता है।” साथ ही, उन्होंने समान नागरिक संहिता (यूसीसी) लागू करने की वकालत की। जस्टिस यादव के इस बयान के बाद देशभर में तीखी प्रतिक्रिया हुई। जागरूक नागरिकों, कानूनी विशेषज्ञों और विपक्षी दलों ने इसे न्यायपालिका की गरिमा के खिलाफ बताया। और विपक्षी सांसदों ने उनके खिलाफ महाभियोग की मांग तक कर डाली।
- राज्यसभा के वरिष्ठ सांसद और सुप्रीम कोर्ट के बार एसोसिएशन के अध्यक्ष कपिल सिब्बल ने जस्टिस यादव के खिलाफ सख्त कार्रवाई की मांग की।
- सिब्बल ने यह भी कहा कि ऐसे न्यायाधीशों की नियुक्ति कैसे हो जाती है प्रक्रिया में पारदर्शिता की सख्त जरूरत है।
- आम नागरिकों और जागरूक लोगों ने उनके बयान के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किए।
- सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में उनके खिलाफ जनहित याचिकाएं (PIL) दाखिल की गईं।
- न्यायपालिका की निष्पक्षता बनाए रखने की मांग को लेकर सामाजिक और कानूनी मंचों पर गहरी चर्चा शुरू हो गई।
न्यायपालिका की निष्पक्षता पर गहरा संकट
जस्टिस यादव के बयान के बाद न्यायपालिका की निष्पक्षता और सत्यनिष्ठा पर गंभीर सवाल खड़े हो गए। संविधान का पालन करने की उनकी जिम्मेदारी पर सवाल उठने लगे। यह पहली बार नहीं था जब न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया को लेकर विवाद हुआ हो, लेकिन इस मामले ने न्यायपालिका की साख को एक बड़े संकट में डाल दिया।
कॉलेजियम ने इस विवाद के बाद सक्रिय होते हुए 17 दिसंबर को जस्टिस शेखर कुमार यादव से मुलाकात की और उनके बयानों पर गंभीर चर्चा की। इस बैठक में मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) संजीव खन्ना और अन्य सदस्य जस्टिस भूषण आर गवई और जस्टिस सूर्यकांत भी मौजूद थे।
- मुख्य न्यायाधीश ने उन्हें फटकार लगाते हुए न्यायिक निष्पक्षता और संविधान के मूल्यों का पालन करने की आवश्यकता पर जोर दिया।
व्यक्तिगत बातचीत से जजों की योग्यता का आकलन
सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने राजस्थान, इलाहाबाद और बॉम्बे हाई कोर्ट के लिए नामांकित न्यायिक अधिकारियों और वकीलों से व्यक्तिगत बातचीत की। इस प्रक्रिया का मकसद यह था कि केवल कागजों में दर्ज सूचनाओं पर निर्भर रहने के बजाय उम्मीदवारों की वास्तविक योग्यता और उनके व्यक्तित्व को करीब से समझा जाए।
कॉलेजियम ने माना कि इस नई प्रक्रिया से न्यायपालिका में पारदर्शिता और निष्पक्षता को मजबूती मिलेगी। यह पहल 2018 में तत्कालीन सीजेआई दीपक मिश्रा के कार्यकाल में शुरू हुई थी, लेकिन बाद में इसे बंद कर दिया गया था। अब इसे फिर से शुरू करते हुए कॉलेजियम ने न्यायिक नियुक्तियों में सुधार का एक बड़ा संदेश दिया है।
जस्टिस यादव के भविष्य पर अनिश्चितता
हालांकि, जस्टिस यादव के विवादास्पद बयानों को लेकर कॉलेजियम ने अभी कोई अंतिम निर्णय नहीं लिया है। उनके ट्रांसफर और आंतरिक जांच को लेकर चर्चाएं जारी हैं। इस बीच, कॉलेजियम ने यह स्पष्ट कर दिया है कि न्यायिक निष्पक्षता से समझौता किसी भी हाल में स्वीकार्य नहीं है। अब आप बोलेंगे की ये कॉलेजियम है क्या ?
कॉलेजियम प्रणाली: इतिहास, सुधार और आलोचना – आसान भाषा में जान लीजिये
कॉलेजियम का मतलब क्या है?
“कॉलेजियम” एक शब्द है, जिसका मतलब है एक समूह। ये समूह कुछ बड़े जजों का होता है जो मिलकर यह तय करते हैं कि किसे जज बनाया जाएगा। इस प्रक्रिया का मकसद यह होता है कि जजों की नियुक्ति में सरकार का ज्यादा हस्तक्षेप न हो, ताकि वे स्वतंत्र रूप से अपने फैसले ले सकें। इस प्रणाली में समय-समय पर बदलाव और सुधार हुए हैं, साथ ही इस पर आलोचनाएँ भी उठती रही हैं। आइए इसे पूरी तरह से समझते हैं, ताकि आम लोग भी इसे अच्छे से समझ सकें।
कॉलेजियम में कौन होते हैं?
कॉलेजियम में कुछ वरिष्ठ जज होते हैं, जिनमें से सबसे अहम होते हैं:
- मुख्य न्यायधीश (CJI) – यह कॉलेजियम का प्रमुख होता है, मतलब इस पूरे काम का जिम्मा उसी के कंधों पर होता है।
- इसके अलावा और 4 बड़े जज होते हैं जो सुप्रीम कोर्ट के होते हैं और मिलकर फैसला करते हैं कि कौन जज बनेगा और कौन नहीं।
कॉलेजियम पर आलोचना क्यों होती है?
कॉलेजियम प्रणाली पर आलोचना भी होती रही है, और इसके कुछ मुख्य कारण हैं:
- पारदर्शिता की कमी: आलोचकों का कहना है कि कॉलेजियम में जजों के चयन की प्रक्रिया में पारदर्शिता नहीं होती। यानी यह साफ नहीं होता कि आखिर कैसे निर्णय लिया जा रहा है।
- बंद समूह में चयन: कई बार यह कहा गया कि कॉलेजियम में कुछ जज ही एक-दूसरे के साथ मिलकर चयन करते हैं, जिससे बाहर के अच्छे उम्मीदवारों को मौका नहीं मिलता।
- अत्यधिक अधिकार: कुछ लोग यह मानते हैं कि कॉलेजियम के पास बहुत अधिक अधिकार हैं और इसे किसी तरह की जिम्मेदारी के बिना काम करने का मौका मिलता है।
पहले जजों की नियुक्ति कैसे होती थी?
पहले यानी जब तक कॉलेजियम प्रणाली लागू नहीं हुई थी, तब जजों की नियुक्ति का तरीका अलग था। सरकार यानी केंद्र सरकार ही जजों के चयन का फैसला करती थी।
- पूर्व प्रक्रिया: पहले सरकार के पास पूरी शक्ति होती थी यह तय करने की कि किसे जज बनाना है। अगर किसी जज की नियुक्ति होनी थी, तो सरकार संबंधित राज्य के उच्च न्यायालय और सुप्रीम कोर्ट से सलाह लेती थी और फिर उम्मीदवार का चयन करती थी।
- चयन का आधार: चयन के लिए मुख्य रूप से उम्मीदवार की योग्यता, अनुभव, और ईमानदारी को देखा जाता था। हालांकि, इसका कोई ठोस और पारदर्शी तरीका नहीं था। कई बार यह आरोप भी लगते थे कि इस प्रक्रिया में सरकार का पक्ष ज्यादा होता था और राजनीति का असर दिखता था।
लेकिन 1993 में सुप्रीम कोर्ट ने एक बड़ा फैसला लिया, जिसमें जजों के चयन की प्रक्रिया को पूरी तरह से बदल दिया गया। इसे कॉलेजियम प्रणाली कहा गया। इसका उद्देश्य था कि जजों का चयन पूरी तरह से न्यायिक तरीके से हो, जिसमें सरकार का कोई दखल न हो। यह फैसला कोर्ट ने संविधान की व्याख्या करते हुए लिया।
अब सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों के जजों का चयन कॉलेजियम द्वारा किया जाने लगा। कॉलेजियम में सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठतम जजों की एक समिति होती है, जो जजों की नियुक्ति पर निर्णय करती है। फिर राष्टपति को नाम भेजती है राष्टपति उसको नियुक्त कर देता है लेकिन कॉलेजियम प्रणाली में अब तक कई बार सुधार किए गए हैं, ताकि जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया को और अधिक पारदर्शी, निष्पक्ष और प्रभावी बनाया जा सके
2009 में सुधार , 2015 में सुधार, 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने कॉलेजियम प्रणाली में एक महत्वपूर्ण सुधार किया। इस सुधार में कहा गया कि जजों की नियुक्ति में केवल वरिष्ठता के आधार पर नहीं, बल्कि व्यक्तिगत योग्यता और न्यायिक निष्पक्षता को भी महत्व दिया जाएगा। यह कदम यह सुनिश्चित करने के लिए उठाया गया था कि जज केवल पारदर्शी और योग्य हों।
2018 में सुधार :
2018 में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के कार्यकाल में एक और सुधार हुआ। इसके तहत, सुप्रीम कोर्ट ने एक और पहल की, जिसमें जजों की नियुक्ति प्रक्रिया में व्यक्तिगत मुलाकात को महत्वपूर्ण बनाने का निर्णय लिया। इसका उद्देश्य यह था कि जजों की नियुक्ति केवल फाइलों में दर्ज जानकारी के आधार पर न हो, बल्कि व्यक्तिगत बातचीत से उनके व्यक्तित्व, न्यायिक दृष्टिकोण और कार्यशैली को समझा जाए।
2021 में सुधार में हुए लकिन वो लागू नही हुवे अब 2024 में कॉलेजियम की यह पहल न्यायिक प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी और निष्पक्ष बनाने का प्रयास है। यह बदलाव न्यायपालिका की विश्वसनीयता बढ़ाने और संविधान के मूल्यों को बनाए रखने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है।लकिन
आने वाले समय में यह देखना होगा कि क्या यह सुधार न्यायपालिका में पारदर्शिता और निष्पक्षता लाने में सफल होगी? इससे जुड़ी हुयी खबरे हम आप तक पहुँचाते रहेंगे अगर आपको हमारे द्वारा दी गयी जानकारी अच्छी लगी तो आप लाइक करे