जस्टिस शेखर कुमार यादव का विवादित बयान: इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज की टिप्पणी पर सवाल
इलाहाबाद हाई कोर्ट के जस्टिस शेखर कुमार यादव ने हाल ही में विश्व हिंदू परिषद (VHP) के एक कार्यक्रम में दिए अपने बयान से देशभर में चर्चा का विषय बना दिया है। उन्होंने अपने भाषण में कठमुल्ला देश के दुश्मन और ये हिंदुस्तान बहुसंख्यकों के हिसाब से चलेगा , जी हां चौंकिए मत, यह इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज है जिन्होंने यह बयान दिया है जो लोगों के अनुसार न्यायिक तटस्थता पर गंभीर सवाल खड़े करता है। उनके इस बयान को लेकर न्यायपालिका, सामाजिक संगठनों और आम जनता के बीच तीखी बहस छिड़ गई है।
अब सवाल यह उठता है कि एक उच्च न्यायधीश के इस बयान को किस नजर से देखा जाए? क्या उनका यह बयान एक व्यक्तिगत विचार था, या फिर एक न्यायधीश के तौर पर उनकी जिम्मेदारी को नज़रअंदाज करने की कोशिश? दरअसल, जस्टिस यादव का यह बयान उनके व्यक्तिगत विचार से अधिक समाज में चल रही बहुसंख्यकवादी सोच को प्रभावित करने वाला प्रतीत होता है।
“कठमुल्ला” शब्द का प्रयोग
जस्टिस यादव ने इस बयान में “कठमुल्ला” शब्द का भी प्रयोग किया। वे कहते हैं कि ऐसे लोग जो देश के खिलाफ भड़काऊ बयान देते हैं और समाज में असहमति और नफरत फैलाते हैं, वे देश के लिए खतरनाक हो सकते हैं। उनका मानना था कि ऐसे लोगों से बचकर रहना चाहिए क्योंकि ये लोग देश के विकास में रुकावट डालते हैं।
“कठमुल्ला” शब्द पर विवाद है, क्योंकि यह शब्द आमतौर पर कट्टरपंथियों के लिए इस्तेमाल किया जाता है। जब कोई न्यायधीश ऐसे शब्दों का उपयोग करता है, तो सवाल उठता है कि क्या यह शब्द न्यायपालिका की निष्पक्षता और तटस्थता को प्रभावित करता है। समाज में ऐसी बातें फैल सकती हैं जो लोगों को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा कर सकती हैं।
जस्टिस शेखर यादव का बयान और उसकी प्रतिक्रिया
कार्यक्रम में जस्टिस शेखर यादव ने कहा, “यह हिंदुस्तान है, और यह देश यहां रहने वाले बहुसंख्यक समुदाय की इच्छाओं के मुताबिक काम करेगा।” उन्होंने यह भी जोड़ा कि हिंदू धर्म में जहां बाल विवाह, सती प्रथा और जौहर जैसी सामाजिक बुराइयों को खत्म कर दिया गया है, वहीं मुस्लिम समुदाय में अब भी कई पत्नियां रखने, हलाला और तीन तलाक जैसी प्रथाएं जारी हैं।
यह बयान न केवल धर्मनिरपेक्षता और न्यायपालिका की निष्पक्षता पर सवाल उठाता है, बल्कि भारतीय संविधान की भावना के भी विपरीत माना जा रहा है। एक न्यायाधीश के रूप में, जिनसे हर समुदाय के प्रति समानता और तटस्थता की उम्मीद की जाती है, ऐसे विचार व्यक्त करना उनके कर्तव्यों और संविधान के प्रति उनकी शपथ पर सवाल उठाता है।
महिलाओं के अधिकारों पर विवादित टिप्पणी
जस्टिस शेखर ने हिंदू धर्मग्रंथों का हवाला देते हुए कहा कि महिलाओं को देवी के रूप में पूजा जाता है। उन्होंने मुस्लिम समुदाय में प्रचलित हलाला और तीन तलाक जैसी प्रथाओं पर आपत्ति जताई और कहा कि यह महिलाओं का अपमान है। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा, “आप चार पत्नियां रखने, हलाला करने या तीन तलाक का अधिकार नहीं मांग सकते। यह अधिकार काम नहीं करेगा।”
यह टिप्पणी जस्टिस शेखर यादव जैसे जज किस प्रकार एक पक्षीय दृष्टिकोण रखते हैं।
भारतीय सविंधान और न्याय: बहुसंख्यकवाद बनाम तटस्थता
अपने भाषण में उन्होंने यह भी कहा कि कानून बहुसंख्यक समुदाय के हिसाब से काम करता है। इस संदर्भ में उन्होंने समाज और परिवार की भलाई का तर्क दिया। परंतु भारतीय संविधान हर व्यक्ति को समान अधिकार देता है, चाहे वह किसी भी धर्म, जाति या समुदाय से हो।
यदि न्यायपालिका में बैठे लोग बहुसंख्यकवाद की वकालत करते हैं, तो यह अल्पसंख्यकों के संवैधानिक अधिकारों का हनन होगा। ऐसी सोच न्यायपालिका की तटस्थता और स्वतंत्रता पर एक गंभीर चोट है।
जस्टिस शेखर यादव का बयान, जिसमें उन्होंने कहा कि “देश बहुसंख्यकों के हिसाब से चलेगा,” एक ऐसा दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है जो संविधान के मूल धर्मनिरपेक्षता और समानता के सिद्धांतों के विपरीत प्रतीत होता है। उनकी टिप्पणी से यह संकेत मिलता है कि वह एक ऐसा विचारधारा प्रस्तुत कर रहे हैं जो बहुसंख्यकवाद (मेजोरिटेरियनिज्म) को बढ़ावा देती है।
भारत का संविधान धर्मनिरपेक्षता की नींव पर आधारित है, जहाँ हर नागरिक को, चाहे वह किसी भी धर्म, जाति, या समुदाय से हो, बराबरी का हक और सम्मान मिलता है। जस्टिस शेखर यादव जैसे व्यक्तित्व, जिनकी जिम्मेदारी न्याय और संविधान की रक्षा करना है, जब ऐसी टिप्पणियाँ करते हैं, तो यह न केवल उनके पद की गरिमा को कम करता है बल्कि समाज में विभाजन और असहमति की भावना को भी बढ़ावा देता है।
बहुसंख्यकवाद के खतरें:
- समानता और न्याय का ह्रास: बहुसंख्यकवाद का अर्थ है कि अल्पसंख्यकों के अधिकार बहुमत के हितों के आगे दब सकते हैं। यह लोकतंत्र की भावना के खिलाफ है।
- सामाजिक विभाजन: ऐसी विचारधारा से समाज में ध्रुवीकरण और असहमति बढ़ सकती है, जो कि शांति और समरसता के लिए खतरनाक है।
- संवैधानिक मूल्यों का ह्रास: भारत का संविधान किसी भी प्रकार के भेदभाव और पक्षपात को नकारता है। बहुसंख्यकवाद इसके विपरीत है।
न्यायपालिका का महत्व: न्यायपालिका को संविधान की रक्षा करते हुए तटस्थ और निष्पक्ष रहना चाहिए। अगर न्यायपालिका के सदस्य इस तरह के बयान देते हैं, तो यह जनता के बीच न्यायपालिका की विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा करता है।
समर्थन और जिम्मेदारी: जस्टिस यादव जैसे व्यक्तियों का समर्थन करने वाले लोग शायद उनकी व्यक्तिगत विचारधारा से सहमत हो सकते हैं, लेकिन यह विचारधारा समाज के सभी वर्गों के कल्याण के लिए हानिकारक हो सकती है।
ऐसे बयान और मानसिकता से देश को बहुसंख्यकवाद की ओर धकेलने की कोशिश लोकतंत्र और सामाजिक न्याय के लिए खतरा है। समाज को इस तरह की सोच का समर्थन करने के बजाय, सभी के हित और समानता की दिशा में काम करना चाहिए।
सामाजिक सुधारों पर दोहरा मापदंड?
जस्टिस शेखर यादव ने हिंदू समाज में सुधारों का उदाहरण देते हुए राजा राम मोहन राय का जिक्र किया, जिन्होंने सती प्रथा और बाल विवाह जैसी बुराइयों को खत्म करने में योगदान दिया। लेकिन उन्होंने मुस्लिम समुदाय पर यह आरोप लगाया कि उन्होंने अपनी सामाजिक बुराइयों को खत्म करने की दिशा में कोई पहल नहीं की।
यह तर्क न केवल गलत है, बल्कि ऐतिहासिक तथ्यों की अनदेखी करता है। हर समुदाय में सुधारों की प्रक्रिया समय के साथ होती है और मुस्लिम समुदाय में भी कई सुधार हुए हैं।
न्यायपालिका में तटस्थता की आवश्यकता
जस्टिस शेखर यादव जैसे न्यायाधीश, जिनके विचार सार्वजनिक रूप से पक्षपातपूर्ण दिखते हैं, पर यह सवाल उठता है कि क्या वे अपने फैसलों में निष्पक्ष रह सकते हैं।
उनका यह बयान न्यायपालिका की निष्पक्षता और स्वतंत्रता को कमजोर करता है। एक जज का काम संविधान और कानून के अनुसार न्याय करना है, न कि बहुसंख्यक समुदाय की इच्छाओं के अनुसार। अगर न्यायाधीश इस प्रकार की मानसिकता के साथ काम करेंगे, तो न्यायपालिका में आम जनता का विश्वास कमजोर होगा।
हमारे देश में विभिन्न धर्मों, जातियों और संस्कृतियों के लोग एक साथ रहते हैं, और यही हमारी सबसे बड़ी खूबसूरती है। भारत को एक विशाल बाग की तरह माना जा सकता है, जहाँ हर तरह के फूल खिला करते हैं, हर फूल की अपनी अलग पहचान और रंग होता है, और यही विविधता हमारे समाज की ताकत है। हम इस विविधता में समृद्धि देखते हैं, क्योंकि यही देश की सांस्कृतिक धरोहर है।
लेकिन जब एक न्यायधीश, जो संविधान का पालन करने का कर्तव्य निभाता है, ऐसा बयान देता है कि “देश बहुसंख्यकों के हिसाब से चलेगा”, तो यह न केवल एक व्यक्तिगत राय, बल्कि पूरी न्यायपालिका के तटस्थता और निष्पक्षता पर सवाल उठाता है। यह बयान बेहद खतरनाक हो सकता है क्योंकि यह संविधान की भावना को नकारता है। संविधान हमें यह सुनिश्चित करता है कि हर नागरिक को बराबरी का हक मिलेगा, चाहे वह किसी भी धर्म, जाति या समुदाय का हो।
अगर कोई न्यायधीश यह कहता है कि देश बहुसंख्यकों के हिसाब से चलेगा, तो इसका मतलब यह होगा कि अल्पसंख्यक समुदायों को अपने अधिकारों से वंचित किया जा सकता है, और यह लोकतंत्र और समानता के सिद्धांतों के खिलाफ है। इस तरह की सोच से समाज में और अधिक तनाव पैदा हो सकता है और देश के अलग-अलग हिस्सों में धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक असहमति बढ़ सकती है।
इसलिए, ऐसे बयानों को समाज और न्यायपालिका दोनों के लिए खतरे की घंटी माना जाना चाहिए। न्यायपालिका का मुख्य कर्तव्य है संविधान की रक्षा करना और सभी नागरिकों को समान अधिकार और सम्मान प्रदान करना। बहुसंख्यकों के हिसाब से निर्णय लेने की सोच से हम उस संविधान की मूल भावना का उल्लंघन करेंगे, जो भारत को एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक राष्ट्र बनाता है।
समाज में संतुलन बनाए रखना और सभी समुदायों को सम्मान देना ही हमारी असली ताकत है, और इस ताकत को कमजोर करना देश के लिए गंभीर नुकसानदायक हो सकता है।
समाज पर प्रभाव और खतरनाक संकेत
इस प्रकार के बयान समाज में नफरत और विभाजन को बढ़ावा दे सकते हैं। जस्टिस शेखर जैसे व्यक्तियों का न्यायपालिका में होना न केवल लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए खतरा है, बल्कि यह समाज की एकता और समानता पर भी नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है।
संविधान की रक्षा की शपथ लेने वाले न्यायाधीशों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे न्यायिक प्रक्रिया में निष्पक्षता और संविधान के मूल्यों के प्रति पूरी तरह समर्पित रहें। लेकिन जब कोई न्यायाधीश ऐसा बयान देता है, जो संविधान की धर्मनिरपेक्षता, समानता और सभी नागरिकों के अधिकारों के खिलाफ प्रतीत होता है, तो यह उनके शपथ का उल्लंघन माना जा सकता है।
कौन हैं जस्टिस शेखर कुमार यादव?
जस्टिस शेखर कुमार यादव का कानूनी करियर लगभग 34 वर्षों का है। वह 12 दिसंबर, 2019 को इलाहाबाद हाई कोर्ट में जज के तौर पर नियुक्त हुए थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से 1988 में लॉ ग्रेजुएशन करने के बाद उन्होंने 1990 में वकील के तौर पर अपना रजिस्ट्रेशन कराया था और फिर इलाहाबाद हाई कोर्ट में प्रैक्टिस शुरू की थी। इसके बाद, वह राज्य की स्टैंडिंग काउंसिल और अडिशनल गवर्नमेंट एडवोकेट के तौर पर भी अपनी सेवाएं दे चुके हैं। 26 मार्च, 2021 को उन्हें स्थायी जज के तौर पर शपथ दिलाई गई।
जस्टिस यादव के इन बयानों ने न्यायपालिका और संविधान के दायरे में उनकी भूमिका पर सवाल खड़ा कर दिया है। उनके विचारों के मद्देनजर, कई लोग यह सवाल उठा रहे हैं कि क्या एक न्यायधीश के तौर पर वह निष्पक्ष और तटस्थ तरीके से न्याय प्रदान कर सकते हैं, जबकि उनके व्यक्तिगत विचार इस प्रकार के विवादों में उलझे हुए हैं।
जनता की जिम्मेदारी
ऐसे मामलों में समाज और नागरिकों को संविधान और उसके मूल्यों के प्रति जागरूक होना चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि न्यायपालिका और अन्य संस्थाएँ अपने संवैधानिक दायित्वों का पालन करें।
संविधान की रक्षा करना केवल न्यायाधीशों की ही जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि यह प्रत्येक नागरिक की जिम्मेदारी है। ऐसे बयानों का विरोध और जागरूकता फैलाना ही लोकतंत्र को मजबूत बनाए रखने का मार्ग है।
निष्कर्ष
जस्टिस शेखर यादव के बयान ने न केवल उनकी तटस्थता पर सवाल खड़े किए हैं, बल्कि न्यायपालिका की गरिमा और संविधान की भावना को भी चुनौती दी है।
ऐसे बयानों से यह जरूरी हो जाता है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति और उनके कार्यों की समीक्षा के लिए एक मजबूत प्रक्रिया हो। न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता को बनाए रखने के लिए समाज और सरकार दोनों को इस पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है।