सुप्रीम कोर्ट में हाल ही में एक याचिका दायर की गई थी, जिसमें महाराष्ट्र के पातुर नगर परिषद के उर्दू साइनबोर्ड को हटाने की मांग की गई थी। इस याचिका के पीछे यह दलील दी गई थी कि नगर परिषद के साइनबोर्ड पर मराठी भाषा के साथ उर्दू भाषा का भी प्रयोग किया जा रहा है, जिसे हटाया जाना चाहिए। याचिकाकर्ता का कहना था कि महाराष्ट्र लोकल अथॉरिटीज (ऑफिशियल लैंग्वेज) एक्ट, 2022 के तहत साइनबोर्ड पर केवल मराठी भाषा का ही उपयोग किया जाना चाहिए। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका पर कड़ी आपत्ति जताते हुए याचिकाकर्ता से सीधा सवाल किया कि उन्हें उर्दू भाषा से क्या दिक्कत है।
उर्दू के प्रति अदालत का सख्त रुख
इस मामले की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस एहसानुद्दीन अमानुल्लाह की बेंच कर रही थी। अदालत ने इस याचिका पर सख्त रुख अपनाते हुए कहा कि उर्दू भारतीय संविधान की 8वीं अनुसूची में शामिल एक मान्यता प्राप्त भाषा है। याचिकाकर्ता को समझाया गया कि उर्दू के खिलाफ इस तरह की मांग करना संविधान के अधिकारों का उल्लंघन है। जजों ने स्पष्ट किया कि भारतीय संविधान में उर्दू भाषा को एक सम्मानजनक स्थान दिया गया है और इसे हटाने की मांग करना अनुचित है।
भारतीय संविधान और भाषाई अधिकार
भारतीय संविधान की 8वीं अनुसूची में 22 भाषाओं को मान्यता दी गई है, जिसमें उर्दू भी शामिल है। यह अनुसूची भारतीय संघ के सभी नागरिकों को इन भाषाओं के प्रयोग का अधिकार देती है और राज्य सरकारों को यह अधिकार देती है कि वे इन भाषाओं का अपने क्षेत्रीय प्रशासन में उपयोग कर सकें। उर्दू का भारत में एक लंबा इतिहास और सांस्कृतिक महत्व है, और इसे हटाने की मांग संवैधानिक सिद्धांतों के खिलाफ है। सुप्रीम कोर्ट ने इस पर जोर देते हुए कहा कि किसी भी भाषा के खिलाफ आपत्ति जताने का कोई ठोस आधार होना चाहिए। सिर्फ इसलिए कि एक भाषा का प्रयोग हो रहा है, उसे हटाने की मांग करना असंवैधानिक है।
पातुर नगर परिषद और उर्दू साइनबोर्ड विवाद
इस मामले की पृष्ठभूमि पर गौर करें तो पातुर नगर परिषद के साइनबोर्ड पर मराठी के साथ उर्दू का भी प्रयोग किया जा रहा था। याचिकाकर्ता ने इस बात पर आपत्ति जताई और मराठी भाषा समिति के अध्यक्ष के माध्यम से अदालत का दरवाजा खटखटाया। याचिकाकर्ता का कहना था कि महाराष्ट्र लोकल अथॉरिटीज (ऑफिशियल लैंग्वेज) एक्ट, 2022 के तहत साइनबोर्ड पर केवल मराठी भाषा का ही इस्तेमाल होना चाहिए, और उर्दू या किसी अन्य भाषा का प्रयोग असंवैधानिक है। इस आधार पर, उन्होंने अदालत से उर्दू साइनबोर्ड को हटाने की मांग की।
बॉम्बे हाई कोर्ट का निर्णय
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करने से पहले, बॉम्बे हाई कोर्ट की नागपुर बेंच ने 10 अप्रैल को एक आदेश जारी किया था। इस आदेश में कहा गया था कि किसी भी नगर निकाय में साइनबोर्ड पर राज्य की भाषा के साथ-साथ किसी अन्य भाषा का भी प्रयोग किया जा सकता है। हाई कोर्ट ने स्पष्ट किया कि महाराष्ट्र में नगर निकायों के साइनबोर्ड पर मराठी के अलावा अन्य भाषाओं के प्रयोग पर कोई प्रतिबंध नहीं है। इस आदेश के बावजूद, याचिकाकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया और हाई कोर्ट के आदेश को चुनौती दी।
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर सुनवाई करते हुए याचिकाकर्ता से सीधे सवाल किया, “आपको उर्दू से दिक्कत क्या है?” यह एक महत्वपूर्ण टिप्पणी थी, जिसने यह स्पष्ट किया कि भाषा के खिलाफ किसी भी तरह की असहिष्णुता को संविधान के अधिकारों का उल्लंघन माना जा सकता है। जस्टिस धूलिया और जस्टिस अमानुल्लाह की बेंच ने कहा कि उर्दू भाषा का इस्तेमाल भारतीय संविधान द्वारा स्वीकृत है, और इसे हटाने की मांग करना संविधान के खिलाफ है। उन्होंने महाराष्ट्र सरकार से इस मामले पर अपना रुख स्पष्ट करने के लिए कहा और इस मामले की अगली सुनवाई 9 सितंबर को तय की गई।
उर्दू का सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्व
उर्दू भाषा का भारत में एक समृद्ध इतिहास है। यह भाषा मुगल काल से लेकर आधुनिक भारत तक साहित्य, संस्कृति और कला में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती आई है। उर्दू शायरी, गज़ल, और साहित्य का भारत की सांस्कृतिक धरोहर में महत्वपूर्ण योगदान है। इसके अलावा, उर्दू भाषा ने हिंदी, पंजाबी, और अन्य भाषाओं के साथ भी गहरा संबंध स्थापित किया है। इस तरह की याचिकाओं के माध्यम से उर्दू भाषा के खिलाफ आपत्ति जताना न केवल सांस्कृतिक रूप से अनुचित है, बल्कि यह देश की भाषाई विविधता को भी खतरे में डाल सकता है।
भाषाई विविधता और संवैधानिक अधिकार
भारत एक बहुभाषी देश है, जहां विभिन्न भाषाओं और बोलियों का उपयोग होता है। भारतीय संविधान भाषाई विविधता को संरक्षित करने के लिए स्पष्ट रूप से प्रावधान करता है। संविधान की 8वीं अनुसूची में 22 भाषाओं को मान्यता दी गई है, जो देश के विभिन्न भागों में बोली जाती हैं। इन भाषाओं का संरक्षण और संवर्धन करना राज्य और नागरिकों दोनों की जिम्मेदारी है। किसी भी भाषा के खिलाफ आपत्ति जताना संविधान के इन प्रावधानों का उल्लंघन है और देश की सांस्कृतिक धरोहर के खिलाफ है।
भविष्य की दिशा
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय एक महत्वपूर्ण संदेश देता है कि भारत में भाषाई विविधता को किसी भी हालत में कम नहीं आंका जा सकता। यह याचिका भले ही उर्दू साइनबोर्ड के खिलाफ थी, लेकिन इसका असर सभी भाषाओं पर हो सकता है। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला इस बात की गारंटी देता है कि संविधान के तहत किसी भी भाषा का प्रयोग करने का अधिकार सुरक्षित है। अब यह देखना बाकी है कि महाराष्ट्र सरकार इस मामले में क्या रुख अपनाती है और 9 सितंबर की सुनवाई में क्या निर्णय होता है।
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट में उर्दू भाषा के खिलाफ दायर याचिका ने भाषा के प्रति समाज में व्याप्त असहिष्णुता और गलतफहमी को उजागर किया है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में याचिकाकर्ता को यह स्पष्ट कर दिया कि भाषा के प्रति किसी भी तरह की असहिष्णुता को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। भारतीय संविधान ने उर्दू भाषा सहित अन्य भाषाओं को मान्यता दी है और उन्हें संरक्षित करने की जिम्मेदारी दी है। इस संदर्भ में, सुप्रीम कोर्ट का निर्णय भाषाई विविधता और संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण कदम है। यह मामला केवल उर्दू भाषा तक सीमित नहीं है, बल्कि यह देश की सभी भाषाओं के अधिकारों और सम्मान की रक्षा के लिए एक मिसाल कायम करता है।